वो परिन्दे भी अब यहाँ नहीं आते
वो कहीं दूर बस गये शायद
वो कहीं दूर बस गये शायद
फल लदे पेड़ सूखने से लगे
ज़मीं के कन्धे धँस गये शायद
शह…
ना क़दम रहे, ना वो कारवाँ, सब रहगुज़र भी चले गये
कितने बसंत काटोगे एेसे? कितने सावन गाओगे?
उड़ता- फिरता सा रहता है
मन भँवरे सा क्यों रहता है?
इक दिन का गुलज़ार बना दो
मुझमें भी शायद कुछ पकता सा रहता है,
कुछ तो है जो मुझमें भी जलता रहता है,
मेरे अंदर की कुछ नदियाँ जमी पड़ी हैं,…
सुख में तो सब साथ खड़े थे,
दुःख में तुमने साथ दिया है
मैं था कितना एकाकी, कितना ठहरा सा, जब तुम आये थे जीवन में
मीठी सी ज्यों धूप…