इक दिन का गुलज़ार बना दो
मुझमें भी शायद कुछ पकता सा रहता है,
कुछ तो है जो मुझमें भी जलता रहता है,
मेरे अंदर की कुछ नदियाँ जमी पड़ी हैं,
शायद उन पर बर्फ़ पड़ी है,
सपनों को लिखने का कारोबार करा दो...
इक दिन का गुलज़ार बना दो...
मैं भी कोशिश करता हूँ बादल छूने की,
भींच-भींच कर धूप पकड़ने की चाहत में
झुलस गया है अंदर का कुछ,
कोई हवा नहीं छूती मेरे चेहरे को,
फ़क़त हारने के निशान हैं पेशानी पर,
इक दिन ठण्डी वाली वो बौछार करा दो
इक दिन का गुलज़ार बना दो
चिथड़ों में लिपटे, मुस्काते कुछ बच्चे हैं,
चौराहे पर मिल जाते हैं अक्सर,
मेरी कार की खिड़की पर यूँ टिक जाते हैं,
जैसे चौराहे का पहरेदार खड़ा हो,
ईद, दीवाली, होली, बारिश ओ बसंत,
सारे मौसम भूखे एक तरह के ?
बिन मौसम इनका कोई त्योहार करा दो...
इक दिन का गुलज़ार बना दो...